उन्नाव रेप केस में कुलदीप सेंगर की जमानत पर CBI ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश को दी चुनौती।
उन्नाव रेप केस में फिर गरमाई सियासत और न्यायिक लड़ाई
उत्तर प्रदेश के बहुचर्चित उन्नाव रेप कांड ने एक बार फिर देश की न्यायिक और राजनीतिक व्यवस्था का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है। केंद्रीय जांच ब्यूरो ने इस मामले में दोषी ठहराए जा चुके पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को दी गई जमानत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है। CBI ने दिल्ली हाई कोर्ट के उस आदेश को चुनौती देते हुए विशेष अनुमति याचिका दाखिल की है, जिसमें सेंगर की सजा को अपील के निपटारे तक निलंबित कर दिया गया था। यह मामला न सिर्फ कानून की बारीकियों से जुड़ा है बल्कि उस सामाजिक सच्चाई को भी सामने लाता है, जहां सत्ता, अपराध और न्याय एक-दूसरे से टकराते नजर आते हैं।
क्या है CBI की SLP और क्यों पहुंचा मामला सुप्रीम कोर्ट
CBI की ओर से दाखिल की गई यह SLP सीधे तौर पर दिल्ली हाई कोर्ट के 23 दिसंबर 2025 के आदेश को चुनौती देती है। हाई कोर्ट ने सेंगर की अपील लंबित रहने तक उसकी उम्रकैद की सजा निलंबित करते हुए जमानत दी थी। CBI का तर्क है कि जिस अपराध में एक नाबालिग पीड़िता के साथ बलात्कार हुआ हो, उसमें दोषी को सजा निलंबन जैसी राहत देना न्याय के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। एजेंसी का कहना है कि यह मामला केवल कानूनी तकनीकीताओं का नहीं, बल्कि पीड़िता के अधिकारों, समाज में न्याय के संदेश और कानून की विश्वसनीयता से जुड़ा है।
2017 से 2019 तक: उन्नाव रेप केस की पृष्ठभूमि
उन्नाव रेप केस की शुरुआत 2017 में हुई थी, जब एक नाबालिग लड़की ने तत्कालीन विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर यौन शोषण का आरोप लगाया। मामला सामने आते ही स्थानीय स्तर पर दबाव, धमकी और कथित सत्ता के दुरुपयोग की बातें उजागर हुईं। पीड़िता और उसके परिवार को लंबे समय तक न्याय के लिए संघर्ष करना पड़ा। यह मामला तब और गंभीर हो गया, जब पीड़िता के पिता की हिरासत में मौत और एक सड़क हादसे में पीड़िता के परिवार के सदस्यों की मौत ने पूरे देश को झकझोर दिया।
ट्रायल कोर्ट का फैसला और उम्रकैद की सजा
दिसंबर 2019 में ट्रायल कोर्ट ने इस हाई-प्रोफाइल मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने कुलदीप सिंह सेंगर को रेप का दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई। इसके साथ ही उस पर 25 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया गया। अदालत ने अपने फैसले में माना कि आरोपी एक प्रभावशाली जनप्रतिनिधि था और उसने अपनी स्थिति का दुरुपयोग कर अपराध को अंजाम दिया। यह फैसला देश में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों पर सख्त संदेश के रूप में देखा गया।
दिल्ली हाई कोर्ट में अपील और सजा निलंबन की मांग
सेंगर ने जनवरी 2020 में अपनी सजा के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अपील दायर की। इसके बाद मार्च 2022 में उसने सजा निलंबन के लिए याचिका दाखिल की। इस याचिका का CBI और पीड़िता की ओर से कड़ा विरोध किया गया। दोनों पक्षों ने अदालत में कहा कि आरोपी को राहत देना पीड़िता के साथ अन्याय होगा और इससे समाज में गलत संदेश जाएगा। इसके बावजूद, हाई कोर्ट ने दिसंबर 2025 में अपील के निपटारे तक सजा निलंबित करने का आदेश दिया।
हाई कोर्ट ने किन कानूनी आधारों पर दी जमानत
दिल्ली हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने अपने आदेश में कहा कि प्रथम दृष्टया सेंगर के खिलाफ POCSO अधिनियम के तहत Aggravated Penetrative Sexual Assault का अपराध नहीं बनता। कोर्ट ने यह भी माना कि उसे POCSO एक्ट की धारा 5(c) या IPC की धारा 376(2)(b) के तहत ‘पब्लिक सर्वेंट’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अदालत के अनुसार, केवल विधायक होना अपने आप में उसे उस श्रेणी में नहीं लाता, जिसमें यह माना जाए कि उसने ‘भरोसे या अधिकार की स्थिति’ का दुरुपयोग किया।
POCSO एक्ट और ‘पब्लिक सर्वेंट’ की व्याख्या
इस मामले का सबसे संवेदनशील और विवादित पहलू POCSO एक्ट की व्याख्या से जुड़ा है। POCSO अधिनियम की धारा 5 उन परिस्थितियों को परिभाषित करती है, जिनमें किसी बच्चे के साथ यौन अपराध को गंभीर श्रेणी में रखा जाता है। ट्रायल कोर्ट ने सेंगर को ‘पब्लिक सर्वेंट’ मानते हुए इस धारा के तहत दोषी ठहराया था। लेकिन हाई कोर्ट ने इस व्याख्या से असहमति जताई और कहा कि विधायक को सीधे तौर पर उस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जैसा कि कानून में परिभाषित है।
CBI का कड़ा रुख और न्याय के हित की दलील
CBI का कहना है कि हाई कोर्ट का यह दृष्टिकोण बेहद संकीर्ण है और इससे कानून का उद्देश्य कमजोर पड़ता है। एजेंसी का तर्क है कि एक जनप्रतिनिधि का प्रभाव और उसकी सत्ता ही उसे ‘भरोसे और अधिकार की स्थिति’ में लाती है। CBI के मुताबिक, यदि ऐसे मामलों में दोषियों को तकनीकी आधार पर राहत दी जाएगी, तो यह भविष्य में पीड़ितों के लिए न्याय की राह को और कठिन बना देगा।
सेंगर की रिहाई क्यों अभी संभव नहीं
दिल्ली हाई कोर्ट से जमानत मिलने के बावजूद कुलदीप सिंह सेंगर फिलहाल जेल से बाहर नहीं आ सकेगा। इसकी वजह यह है कि वह एक अन्य CBI केस में हत्या का दोषी है और उसे उस मामले में 10 साल की सजा सुनाई जा चुकी है। इस तथ्य ने भी पूरे मामले को और जटिल बना दिया है, क्योंकि भले ही रेप केस में सजा निलंबित हो, लेकिन अन्य मामलों में उसकी सजा जारी है।
सुप्रीम कोर्ट में क्या दांव पर है
अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है। शीर्ष अदालत को यह तय करना होगा कि क्या दिल्ली हाई कोर्ट का सजा निलंबन आदेश न्यायसंगत था या नहीं। यह फैसला न सिर्फ कुलदीप सेंगर के भविष्य को तय करेगा, बल्कि POCSO कानून की व्याख्या और जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही पर भी दूरगामी असर डालेगा।
पीड़िता के लिए न्याय की लंबी लड़ाई
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे अहम सवाल पीड़िता के न्याय का है। वर्षों तक चले इस केस ने यह दिखाया है कि कैसे एक आम नागरिक को सत्ता और सिस्टम के खिलाफ लड़ना पड़ता है। पीड़िता की ओर से बार-बार यह कहा गया है कि जमानत जैसे आदेश उसे मानसिक रूप से फिर से आहत करते हैं और न्याय प्रक्रिया पर उसका भरोसा कमजोर करते हैं।
राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव
उन्नाव रेप केस केवल एक आपराधिक मामला नहीं रहा, बल्कि यह राजनीतिक नैतिकता और सामाजिक जिम्मेदारी का प्रतीक बन चुका है। एक पूर्व विधायक का इस तरह के अपराध में दोषी ठहराया जाना और फिर उसे कानूनी राहत मिलना, समाज में कई तरह के सवाल खड़े करता है। यह मामला यह भी दिखाता है कि कानून की बारीकियां किस तरह बड़े फैसलों की दिशा तय करती हैं।
आगे क्या होगा
अब सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं। CBI की SLP पर सुनवाई के दौरान अदालत यह तय करेगी कि क्या सजा निलंबन को रद्द किया जाना चाहिए या नहीं। यह फैसला आने वाले समय में न सिर्फ इस केस बल्कि ऐसे तमाम मामलों के लिए मिसाल बनेगा, जहां सत्ता और अपराध एक-दूसरे से टकराते हैं। उन्नाव रेप केस एक बार फिर यह याद दिलाता है कि न्याय की राह लंबी और जटिल हो सकती है, लेकिन समाज की उम्मीदें हमेशा उसी से जुड़ी रहती हैं।


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