गरीबी की दर्दनाक हकीकत: आगरा में मजदूर की संदिग्ध मौत, शव नहीं ला पाए घर… बांस-भूसे के पुतले से किया अंतिम संस्कार



आगरा में झारखंड के मजदूर की मौत, गरीबी के कारण शव घर नहीं लाया जा सका, परिवार ने पुतले से किया अंतिम संस्कार


आगरा में झारखंड के मजदूर की मौत, गरीबी ने रोका शव का सफर

उत्तर प्रदेश के आगरा में हुई एक दर्दनाक घटना ने समाज को झकझोर दिया है. यहां झारखंड के गिरिडीह जिले के मंदुआडीह गांव के रहने वाले 38 वर्षीय सीताराम यादव की संदिग्ध परिस्थितियों में ट्रेन के भीतर मौत हो गई. रेलवे पुलिस ने जब शव की तलाशी ली तो पैंट की जेब से एक पर्ची मिली, जिस पर उसका नाम, पता और परिवार का विवरण लिखा था. इसी पर्ची के सहारे पुलिस ने सीताराम के घरवालों से संपर्क साधा. लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई, बल्कि यहीं से एक और दर्दनाक मोड़ आया—परिवार के पास इतनी भी आर्थिक क्षमता नहीं थी कि वे आगरा जाकर अपने प्रियजन का शव वापस ला सकें.

गरीबी और लाचारी ने छीनी अंतिम विदाई का हक

सीताराम की मौत की खबर ने परिवार पर पहाड़ तोड़ दिया. उनकी पत्नी और तीन छोटे बच्चों के सिर से पिता का साया उठ गया. लेकिन परिवार के सामने सबसे बड़ा सवाल था—शव को झारखंड कैसे लाया जाए? पुलिस ने साफ कहा कि शव लेने के लिए एक दिन का समय है, वरना पोस्टमार्टम के बाद वहीं स्थानीय स्तर पर अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा. घरवालों ने कोशिश की, लेकिन आगरा तक पहुंचने का किराया और यात्रा का खर्च वहन कर पाना उनके लिए नामुमकिन था.

पुतले से किया गया अंतिम संस्कार

मजबूरी में, परिवार ने झारखंड के जमुआ प्रखंड स्थित अपने गांव में बांस और भूसे का पुतला बनाया. इस पुतले को सीताराम के कपड़ों से सजाया गया और उसकी तस्वीर लगाई गई. फिर पूरे गांव के सामने स्थानीय परंपरा के अनुसार पुतले का नदी किनारे सामुदायिक श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार किया गया. इस दृश्य को देखकर गांव के लोग भी भावुक हो उठे. यह नजारा सोशल मीडिया पर भी वायरल हो गया, जहां तस्वीरों में परिवार के सदस्य पुतले को अग्नि देते नजर आए.

भतीजे ने सुनाई मजबूरी की दास्तान

सीताराम के भतीजे मनोज ने बताया कि पुलिस से सूचना मिलने के बाद दो लोग शव लेने के लिए निकले, लेकिन रास्ते में धनबाद में ट्रेन बदलते वक्त रास्ता भटक गए और वापस लौट आए. मनोज ने कहा, "हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि हम आगरा तक जा पाते. मजबूरी में पुतले से संस्कार करना पड़ा. 12 दिन के शोक के बाद इसकी राख को गंगा में विसर्जित करेंगे."

गांव में पसरा मातम और सवाल

सीताराम के निधन ने पूरे गांव में मातम का माहौल पैदा कर दिया है. पत्नी का रो-रोकर बुरा हाल है, जबकि छोटे बच्चे अभी इस सच्चाई से अनजान हैं कि उनके पिता अब कभी घर नहीं लौटेंगे. गांव के लोग सवाल उठा रहे हैं कि जब पुलिस के पास शव था, तो उसे सरकारी खर्चे पर घर क्यों नहीं भेजा गया. कई ग्रामीणों का कहना है कि अगर समय पर प्रशासन ने मदद की होती तो सीताराम का अंतिम संस्कार उनके घर पर हो सकता था.

वर्षों से कर रहे थे दिहाड़ी मजदूरी

सीताराम पिछले कई सालों से आगरा में रहकर दिहाड़ी मजदूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे थे. परिवार बताता है कि वह हर महीने अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा घर भेजते थे ताकि बच्चों की पढ़ाई और घर का खर्च चल सके. लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. उनकी अचानक हुई मौत ने पत्नी और बच्चों के भविष्य को अंधकार में धकेल दिया है.

सोशल मीडिया पर उमड़ा सहानुभूति का सैलाब

इस घटना की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो गए. कई लोग भावुक हो गए और पोस्ट पर शोक संदेश लिखते हुए परिवार की मदद की अपील करने लगे. कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सीताराम के परिवार तक मदद पहुंचाने की कोशिश शुरू कर दी है. लेकिन यह मामला सिर्फ एक परिवार की त्रासदी नहीं है, बल्कि यह समाज के उस वर्ग का आईना भी है जो रोजाना दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करता है और मौत के बाद भी सम्मानजनक विदाई से वंचित रह जाता है.

सरकार और प्रशासन से मदद की मांग

गांव के लोगों ने राज्य सरकार और जिला प्रशासन से अपील की है कि ऐसे मामलों में गरीब परिवारों को शव घर लाने के लिए आर्थिक सहायता दी जाए. ग्रामीणों का कहना है कि सीताराम की मौत सिर्फ एक परिवार का नुकसान नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज के लिए एक चेतावनी है कि गरीबी और लाचारी इंसान से उसका सबसे बुनियादी अधिकार—सम्मानजनक अंतिम संस्कार—भी छीन सकती है.

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